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एक सवाल
-by Ranjeeta Nath Ghai
उन्हें मस्रूफ़िअत से फुरसत नहीं
हमें इंतज़ार की आदत सही
गुज़र गया आज का दिन भी रोज़ की तरह
ना उनको फुर्सत मिली
ना ख़याल आया
बेइंतहा उन्हें चाहने की बेबसी मेरी
कुछ किस्मत बुरी,
तो कुछ वक्त ही बुरा सा है…
याद करते नहीं, तो याद आते ही क्यूँ हो
ख्यालों में आ-आ के सताते क्यों हो?
हमने जब चुप्पी साधी
तब इलज़ाम हमारे सर पर था
कभी संगदिल,
तो कभी पत्थर दिल कहलाये गए|
कभी कभी तो एक सवाल सा मेरे ज़हन में उठता है…
क्या अस्तित्व है आज मेरा उनकी ज़िन्दगी में?
क्या सिर्फ फुरसत मिलने पर ही याद आती हूँ?
इस जुदाई में क्या उस ने पा लिया होगा?
क्या फर्क पड़ता है…
मेरे होने या ना होने से?
ek savaal
unhen masroofiat se phurasat nahin
hamen intazaar kee aadat sahee
guzar gaya aaj ka din bhee roz kee tarah
na unako phursat milee
na khayaal aaya
beintaha unhen chaahane kee bebasee meree
kuchh kismat buree,
to kuchh vakt hee bura sa hai…
yaad karate nahin, to yaad aate hee kyoon ho
khyaalon mein aa-aa ke sataate kyon ho?
hamane jab chuppee saadhee
tab ilazaam hamaare sar par tha
kabhee sangadil,
to kabhee patthar dil kahalaaye gae|
kabhee kabhee to ek savaal sa mere zahan mein uthata hai…
kya astitv hai aaj mera unakee zindagee mein?
kya sirph phurasat milane par hee yaad aatee hoon?
is judaee mein kya us ne pa liya hoga?
kya phark padata hai…
mere hone ya na hone se?
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