नए शहर की वो पहली रात

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नए शहर की वो पहली रात

-रंजीता नाथ घई सृजन

नया था माहौल नयी सी बेचैनी
और नई सी आबोहवा थी
आँखों में कुछ नए-नए से सपने थे
कितने ही सवाल मन को गुद्गुताते थे
और कुछ मन में उलझने थी
याद है आज भी मुझे
नए शहर की वो पहली रात…

नए से घर में अनजान सी वो दीवारें थी
लंबी- लंबी सी सड़कों पर
नई-नई सी परछाईयाँ थी
नीम, बरगद और अशोक के पास
नई-नई सी दुकानें थी
याद है आज भी मुझे
नए शहर की वो पहली रात…

आधी रात की चांँदनी में भीगी हुई
रेशमी स्मुतियों की झालर थी
चम्पा के फूलों की भीनी-भीनी सी महक थी
मानो हल्दी का उपटन लगाये
सुनसान सी वो सडकें थी
याद है आज भी मुझे
नए शहर की वो पहली रात…

पुरानी सी संदूकों में दबी
नई-नई सी उम्मीदें थी
फासला था, कुछ मेरे नींद में और बिस्तर में
और चारों ओर दुनिया सो रही थी
अधजगी-सी अधसोई-सी लिख रही मैं ये कविता थी
याद है आज भी मुझे
नए शहर की वो पहली रात…

टिप्पणी

एक सैन्य पत्नी होने के नाते मैं अपने पति के साथ कई बार तबादले पर उनके साथ साथ एक शहर से दुसरे शहर भटकती रही हूँ|

अक्सर हमारा तबादला 2 वर्ष या फिर उससे कम में होता रहा है| हर बार जब हम किसी नए शहर में जाते हैं तब वहांँ की आबो हवा में एक अलग सा नशा होता है, कुछ अनकही सी कुछ अनसुनी सी कहानियांँ होती हैं जो उस जगह को और भी रोमांचक बना देती है|

नए शहर में हर रात अटकलें और नई चुनौतियों से भरी होती है। मेरी यह कविता हर उस जगह को सलाम करती है जहाँ जहाँ मैं अपने पति संग घूमी हूँ और हर वो शहर जिसने मुझे अपनाया है|

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